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शनिवार, 10 सितंबर 2011

बीते पल के आँगन में


(बीते दिनों की याद प्रतेक के जेहन में किसी न किसी रूप में छिपी रहती हैं । जिस प्रकार फूल की पंखुड़ियां सूख जाती हैं, मगर खुशबू नहीं सूखती उसी प्रकार यादें भी ....)

बीते पल के आँगन में
है रौशनी ज़र्रा-ज़र्रा
कोमल पंखुड़ियां हैं सूखी
फिर भी खुशबू कलश भरा //

मन बचपन हो जाता क्षण में
ऊर्जा सी जग जाती तन में
प्रवाह विद्युत् का रोक न पाता
कैसे भूलूं प्यार तुम्हारा गहरा //
कोमल पंखुड़ियां हैं सूखी
फिर भी खुशबू कलश भरा //


तेरे अधरों का कमल चुराने
तुम्हें यौवन का स्वाद चखाने
पहुंचा मैं रिमझिम सावन में
बच-बच के,तोड़ पुलिसिया पहरा //
कोमल पंखुड़ियां हैं सूखी
फिर भी खुशबू कलश भरा //

8 टिप्‍पणियां:

  1. अति सुन्दर बहुत-बहुत धन्यवाद

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  2. मधुर स्मृतियों में रची बसी कोमल उम्र की अभिव्यक्ति.

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  3. बड़ी खूबसूरती से शब्द दिए...सुन्दर भाव..बधाई.

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  4. बहुत सुन्दर रचना , सुन्दर भाव , आभार

    कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें.

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  5. मेरी १०० वीं पोस्ट , पर आप सादर आमंत्रित हैं

    **************

    ब्लॉग पर यह मेरी १००वीं प्रविष्टि है / अच्छा या बुरा , पहला शतक ! आपकी टिप्पणियों ने मेरा लगातार मार्गदर्शन तथा उत्साहवर्धन किया है /अपनी अब तक की " काव्य यात्रा " पर आपसे बेबाक प्रतिक्रिया की अपेक्षा करता हूँ / यदि मेरे प्रयास में कोई त्रुटियाँ हैं,तो उनसे भी अवश्य अवगत कराएं , आपका हर फैसला शिरोधार्य होगा . साभार - एस . एन . शुक्ल

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  6. साढ़े छह सौ कर रहे, चर्चा का अनुसरण |
    सुप्तावस्था में पड़े, कुछ पाठक-उपकरण |

    कुछ पाठक-उपकरण, आइये चर्चा पढ़िए |
    खाली पड़ा स्थान, टिप्पणी अपनी करिए |

    रविकर सच्चे दोस्त, काम आते हैं गाढे |
    आऊँ हर हफ्ते, पड़े दिन साती-साढ़े ||

    http://charchamanch.blogspot.com/

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