
ओ हवा ...
थोडा सा बह लो
मेरी महबूबा के लिए
उसके पसीने सुखा दो //
ओ फूल ...
थोडा सा महक जाओ
ओ दिनकर ...
थोड़ा सा छिप जाओ बादलों में
ओ पक्षियों ...
थोड़ा सा चहचहां लो ...
मेरी महबूबा के लिए
मेरी गैरहाजरी में
मेरी महबूबा को खुश रखने का
मनुहार करता हूँ ॥//
सुंदर चित्र के साथ सुंदर कविता बधाई
जवाब देंहटाएंsundar kavitha
जवाब देंहटाएंवाह क्या मनुहार है।
जवाब देंहटाएंbhut sunder:)
जवाब देंहटाएंसुनो भाई, कोई तो ध्यान दो.
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता है। सोचपूर्ण
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुभकामनाएं
बहुत ही सशक्त और सुन्दर रचना है!
जवाब देंहटाएंमेरी गैरहाजरी में
जवाब देंहटाएंमेरी महबूबा को खुश रखने का
मनुहार करता हूँ ॥// waah bababan ji waah
राकेश जी ,मनुहार इसलिए की ...अब इंसानों से बिस्वाश उठ गया
जवाब देंहटाएंसुन्दर संवेदनशील अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल शुक्रवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
जवाब देंहटाएंयदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
बहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंएक 'ग़ाफ़िल' से मुलाक़ात याँ पे हो के न हो
आपका मनुहार तो बहुत ही अच्छा है /बहुत ही प्यार से लिखी गई शानदार रचना /बधाई आपको /
जवाब देंहटाएंplease visit my blog,and leave a comment also.thanks
waah! sundar kavita...
जवाब देंहटाएंHi I really liked your blog.
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बहुत ही बढ़िया सर।
जवाब देंहटाएं----
कल 29/08/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
बहुत खूब लिखा है |
जवाब देंहटाएंआशा
महबूबा के लिए मनुहार सुन्दर लगा
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
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