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रविवार, 4 सितंबर 2011

मेरा मन क्यों न बहके


जब खेतों में सरसों महके
जब अमराई में कोयल चहके
जब घुघट से आँचल सरके
बोलो सजनी !
मेरा मन तब क्यों न बहके //

जब छाये पूरब में लाली
जब गाए खरतों में हरियाली
झूमे उर और कमर जब लचके
बोलो सजनी !
मेरा मन तब क्यों न बहके //

जब सुमन-पवन का हो आलिंगन
तब यौवन-ढलान पर फिसले मन
छूकर मुझे, जब तेरा स्वर अटके
बोलो सजनी !
मेरा मन तब क्यों न बहके //
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13 टिप्‍पणियां:

  1. श्रृंगार रस की बेहतरीन अभिव्यक्ति...!!

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  2. सुन्दर रचना. अभी तो बहकते रहिये.

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  3. बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति पांडे जी

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  4. अजी बहकना ही बहकना है और कोई रास्ता भी तो नहीं है.
    सुन्दर रचना

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  5. ऐसा नहीं की मुझे लुभाता,जुल्फों का साया ना था
    या यौवन सावन ओढ़े मेरे द्वारे आया ना था
    मुझको भी प्रेयसी की मीठी बातें अच्छी लगाती थी
    रिमझिम-रिमझिम सब्नम की बरसातें अच्छी लगती थी
    मुझको भी प्रेयसी पर गीत सुनाने का मन करता था
    उसकी झील सी आखों में खो जाने का मन करता था
    तब मैंने भी विन्दिया,काजल और कंगन के गीत लिखे
    यौवन के मद में मदमाते,आलिंगन के गीत लिखे
    पर जिस दिन भारत माता का,क्षत-विक्षत यह वेश दिखा
    लिखना बंद किया तब मैंने,खंड-खंड जब देश दिखा
    नयन ना लिख पाया कजरारे,तेज दुधारे लिख बैठा
    भूल गया श्रृंगार की भाषा,मै अंगारे लिख बैठा

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  6. बहुत अच्छा लिखा है जी ऐसे ही लिखते रहे

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  7. प्रेम को अभिव्यक्त करना तो कोई आपसे सीखे , गजब की अभिव्यक्ति।

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