कोजागरा ... नाम सुनने में तो बड़ा ही अटपटा लगता है ,परन्तु बिहार के मिथिलांचल में यह एक महत्वपूर्ण पर्व है. यह पर्व शरद पूर्णिमा के दिन चांदनी रात में मनाया जाता है. इस पर्व में नव विवाहित वर -वधू चांदनी रात में गोबर से लीपे, अल्पना से सजे आँगन में जग्न्न्मता लक्ष्मी और इंद्र व् कुबेर की विधिवत पूजा की जाती है . अभ्यागतों का स्वागत पान-मखान से किया जाता है.कोजागरा का विशेष आकर्षण है .. वर -वधू की अक्ष-क्रीडा
नव विवाहित जोड़ों के आनंद के लिए दोनों को जुआ खेलाया जाता है और चूँकि वधू अपनी ससुराल में नई होती हैं, जहां वरपक्ष की स्त्रियाँ और युवतियां अधिक होती है मीठी बेईमानी कर वर को जीता दिया हैं. लक्ष्मी पूजन के उपरान्त नव-विवाहित जोड़े पुरे टोले लोगों को पान मखान बाटते हैं . कोजागरा के भर (उपहार) के रूप में वधू के मायके से बोरों में भरकर ताल मखाना आता है
मखाना बहुत हल्का होता हैं तीन-चार किलो में ही एक बोरा भर जाता है. तालमखाना मिथिलांचल के पोखरों में ही होता होते हैं और कही नहीं. इनके पत्ते कमल के पत्तों की गोल-गोल मगर कांटेदार होतें हैं . उनकी जड़ में रुद्राक्ष की तरह गोल-गोल दानों के गुच्छे होते हैं ,जिन्हें आग में तपाकर उसपर लाठी बरसाई जाती है ,जिससे उन दानों के भीतर से मखाना निकल जाता है .
यह प्रक्रिया बहुत ही श्रम-साध्य है जिसे मल्लाह लोग ही पूरा कर पाते है. जिस दिन वे हार मान लेंगे उसी दिन ताल-मखाने पूरी दुनिया में दुर्लभ हो जायेंगे . दुर्भाग्यवश इस प्रक्रिया का यंत्रीकरण नहीं किया जा सका है //
( डा बुध्हिनाथ मिश्र के संस्मरण से साभार )
नव विवाहित जोड़ों के आनंद के लिए दोनों को जुआ खेलाया जाता है और चूँकि वधू अपनी ससुराल में नई होती हैं, जहां वरपक्ष की स्त्रियाँ और युवतियां अधिक होती है मीठी बेईमानी कर वर को जीता दिया हैं. लक्ष्मी पूजन के उपरान्त नव-विवाहित जोड़े पुरे टोले लोगों को पान मखान बाटते हैं . कोजागरा के भर (उपहार) के रूप में वधू के मायके से बोरों में भरकर ताल मखाना आता है
मखाना बहुत हल्का होता हैं तीन-चार किलो में ही एक बोरा भर जाता है. तालमखाना मिथिलांचल के पोखरों में ही होता होते हैं और कही नहीं. इनके पत्ते कमल के पत्तों की गोल-गोल मगर कांटेदार होतें हैं . उनकी जड़ में रुद्राक्ष की तरह गोल-गोल दानों के गुच्छे होते हैं ,जिन्हें आग में तपाकर उसपर लाठी बरसाई जाती है ,जिससे उन दानों के भीतर से मखाना निकल जाता है .
यह प्रक्रिया बहुत ही श्रम-साध्य है जिसे मल्लाह लोग ही पूरा कर पाते है. जिस दिन वे हार मान लेंगे उसी दिन ताल-मखाने पूरी दुनिया में दुर्लभ हो जायेंगे . दुर्भाग्यवश इस प्रक्रिया का यंत्रीकरण नहीं किया जा सका है //
( डा बुध्हिनाथ मिश्र के संस्मरण से साभार )
प्रिय बबन भाई,
जवाब देंहटाएंअद्भुत!
हमारे लिए नई जानकारी है।
हमारे देश की संस्कृति और सभ्यता सचमुच विलक्षण है।
जय श्रीराम।
हौसला आफजाई के लिए आभार
जवाब देंहटाएंनमस्ते भैया ........उनकी जड़ में रुद्राक्ष की तरह गोल-गोल दानों के गुच्छे होते ..या कमल जो खिलता वाही छतरी में कमल के दाने होते हैं उसे ही कमलगट्टा कहते हैं जिससे मखाना होता हैं शायद ..हो सकता हैं हम गलत हो ..पर मखाना में काली खोल कभी कभी मिल जाती हैं उसी से अंदाजा लगाया था क्योकि कमलगट्टा तो खूब खाए हैं हम
जवाब देंहटाएंसही कह रही हो सविता बहन
जवाब देंहटाएं:)
हटाएंअद्भुत , हमारे लिए नई जानकारी है।
जवाब देंहटाएंRECENT POST : - एक जबाब माँगा था.
मखाने का सच
जवाब देंहटाएंरोचक और प्रभावशाली रपट
बहुत खूब --------
नयी जानकारी मिली। महाराष्ट्र में इस दिन 'कोजागिरी' त्योहार होता है. शंकर - पार्वती की पूजा की जाती है और रबड़ी (वासुंदी) बनाई जाती है
जवाब देंहटाएंहमें भी आपके कमेंट से नै जानकारी मिली @ संध्या जी
हटाएंबिलकुल नई जानकारी ... कई बार सोचा पर आज पता चल गया मखाने कैसे बनते हैं ... त्यौहार के बारे में जानकार भी अच्छा लगा ...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया जानकारी, मखानों के बारे में सच हमने कभी पहले नहीं जाना था. धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंपाण्डेय साहब को मेरा शुक्रिया
हटाएंअच्छी जानकारी। रोचक लेख।
जवाब देंहटाएंसंतोष पाण्डेय भाई ... पढ़ते रहे और हौसला बढाते रहे
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