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सोमवार, 11 मार्च 2013

पूजा और प्रवचन

पूजा क्या है--- मैंने इस पर अपनी समझा के मुताबिक़ बहुत माथा-पच्ची की , अंत में यही निष्कर्ष निकला कि यह दिनचर्या शुरू करने का एक अच्छा माध्यम है साथ-ही साथ अपने आराध्य देव को खुश करने का और आत्म संतुष्टि पाने का सर्वोत्तम विधान है

हो सकता है .. आप मेरे विचारों से सहमत न हों  पूजा करना, कपडे को आयरन (ईस्त्रि) क्र पहनने जैसा है इसमें कोई गारंटी नहीं कि कपडे में मौजूद विषाणु मर ही गए हों
जबकि प्रवचन में हम किसी संत, महापुरुष, वैज्ञनिक या किसी अन्य सामज सुधारक के बारे समाज और इंसानियत के प्रति किये गए उनके कृत्यों को सुनते है . सुनने के दौरान दिल के अंदर टिस उठती है कि शायद हम भी वैसा कुछ कर पाते, जिससे मेरे जीवन के चर्चे नश्वर शारीर छोड़ने के बाद भी इस लौकिक संसार में बने रहते //

लगातर प्रवचन सुनने से मानव मन के अंदर का रावण धीरे-धीरे मरने लगता है ,और राम हावी होने लगता है . ऐसा होने से हम भी उनके द्वारा किये गए कार्यों या समाज के प्रति अपनी जिम्मेवारी को निभाने कि कोसिस करते है.सीधे  रूप में यह कहा जा सकता है कि लगातर प्रवचन के श्रवण से मानव का आचरण सवर सकता है जबकि पूजा करने से सिर्फ आत्म-शुद्दि का भाव ही जागृत होता  है

समाज में बुराइयों का अंत नहीं है पहले लोगों को लगता था कि सती प्रथा ही समाज कि सबसे बड़ी बुराई है जैसे ही यह कुप्रथा दूर हुई दूसरी अनेकानेक बुराइयों ने समाज में अपना घर बना लिय! इटरनेट और टी. वी आने के बाद अपनी भारतीय संस्कृति पर ज़बदस्त हल्ला और कुठाराघात हुआ . कानून बना देने समस्या का समाधान नहीं है किसी बड़े वकील का घर देखिये  धोखाधड़ी  , हत्या  और अन्य अपराध कि रोक-थाम के लिए बने कानून कि किताबों से भरा होता है .. फिर भी किसी अपाराध में कमी आई है ?

अच्छा तो यही होगा कि बुराइयों का अंत उसका जड़ काटकर करें... बाल्यावस्था से अगर इस और प्रवृत होने कि कोसिस क़ी जाए , तो हम प्रवचन सुनकर और सुनाकर एक स्वस्थ समाज बनाने क़ी और अग्रसर हो सकेगें 

10 टिप्‍पणियां:

  1. सही कह रहे हैं,,,पूजा तभी सार्थक लगती है जब सुबह की शुरुआत जल्दी हो और हम उसे अपने जीवन में एक दैनिक प्रकिरिया की तरह ढाल लें लेकिन पूजा पर विश्वास बहुत जरूरी है,,,क्योंकि पूजा से आरंभन ही पूरे दिन की कार्य शैली पर हावी होना चाहिए,,,,
    लेकिन आज जिस तरह प्रवचन का कमर्शियल रूप सामने आ रहा है ऐसे प्रवचन से कोफ़्त होती है, सत्संग तो वही है जो किस मंदिर के प्रान्गड में हो , ऐसे ही हमारी बातो का रुख अध्यात्म की तरफ हो या हमें किताबों के अद्ध्यन से हो ना की उबाऊ गर्मी से डोलते बड़े बड़े सभागारों में,,,,

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  2. पूजा अपने आराध्य देव को खुश करने का और आत्म संतुष्टि पाने का सर्वोत्तम विधान है,,,



    Recent post: रंग गुलाल है यारो,

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  3. वाह बहुत सुन्दर !
    आपने बहुत ही अच्छे शब्दों में सही बात समझाने का कार्य किया है .....मई पूरी तरह सहमत हूँ आपके इन अमृत वचनों से ..........रत्नेश

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  4. बहुत बढ़िया आलेख पाण्डेय जी ,
    व्यक्तित्व संवारने की प्रक्रिया तो,
    बचपन से ही शुरू हो जाती है
    पूजा -पाठ तो हमें संस्कारों
    में ही दिया जाता है

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  5. इस परिपेक्ष में एक उक्ति ध्यान में आती है-

    "" जब आप कोई निर्णय ले लेते हैं,
    तो ब्रम्हाड उसे सच करने की कोशीश करता है।""

    पूजा/प्रार्थना ईश्वर से तादात्मय की एक आस्था है।।।इस अलौकिक प्रेम के लिये आप और वह आवश्यक हैं, अन्य वस्तु गौण हैं। जब हम सदाचर करते हैं, तो जो हमसे हो पाए, वही धर्म है।

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  6. बहुत बढ़िया बबन जी ....श्रवण वही अमृत है जो धीरे धीरे विष की नुकिलें पंजों को धीरे धीरे भोटे कर देता है जो अपनी फितरत से इन्सान को आगोश में ले भी ले तो बे असर हो जाता है ....सटीक और सुंदर आलेख ..Nirmal paneri

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  7. बहुत ही सही आपने अपने अनुभवों से पूजा और अध्यात्म के ऊपर प्रकाश डालने की बहुत ही अच्छी कोशिश की है|

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