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मंगलवार, 14 जून 2011

एक बेटी की कसक

माँ....
लोग तुम्हें बुढ़िया कहते हैं
अब, जब निकलने लगे हैं
मुझमें यौवन के पंख
तब आईने में देखकर
आश्वस्त हो जाती हूँ
कि.....
लाखों में एक होगी
मेरी माँ//
गन्दी ज़वान पर
लोग ताला क्यों नहीं लागते //

8 टिप्‍पणियां:

  1. अंतर्मन को झकझोर दिया आपने ..बहुत सुंदर।

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  2. बहुत सुन्दर लिखा कमाल... एक बेटी की भावना आपने कैसे समझ ली .. बहुत खूब उम्दा..

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  3. बहुत बढ़िया लिखा है सर!
    ------------------
    कल 21/06/2011को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की गयी है-
    आपके विचारों का स्वागत है .
    धन्यवाद
    नयी-पुरानी हलचल

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  4. बहुत अच्छी बात कही है आपने कि कविता पढने की नहीं समझने की चीज है।आफिस की फाइलों की तरह सरसरी नजर डाल देना कविता पढना नहीं है। जैसे आपने इस रचना में लिखा है -मां की उम्र कुछ भी क्यों न होजाये ,कितनी ही अस्वस्थ्य बीमार हो , बेटी के सामने उसे कोई बुढिया कहेगा तो बुरा लगेगा ही बेटी को। बेटा एक दफे सुन भी सकता है । इस लिये इस रचना की विशेषता यह है कि यह लडके के बजाय लडकी की तरफ से लिखी गई है। अब देखिये बुढिया को बुढिया कहने पर बेटी को कितना गुस्सा आता है कि वह इस भाषा को गंदी जबान कहती है ।सही है जी बेटियां ही मां बाप को चाहती है।अच्छी कविता पढी आज ।ं तबीयत खुश हो गई

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