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सोमवार, 6 सितंबर 2010

सलाम -बंदगी

बसंत के फूल को सहना पड़ता है ,पतझड़ का धूल
अपनी जवानी को सहना पड़ता है ,बुढ़ापे का शूल ॥

धन -लोलुपता और भौतिक सुन्दरता बनाने के क्रम में
हम नहीं बना सके ,सामाजिक रिश्तों का स्वस्थ पुल ॥

प्रकृति की भाषा समझने में ,अबोध है बिलकुल
खनकते है सिक्के ,जब सब रहते है मिलजुल ॥

मेरे दोस्तों ,कर लो खुदा को सलाम बंदगी
न जाने कब जिंदगी की बत्ती हो जाए गुल ॥

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