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शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

एक सैनिक की पत्नी

वृक्ष की जड़े मांगती धूप
धूप मांगती बरसा
घर से बाहर , मेरे साजन
सावन में मन तरसा ॥

गोलियां रोज खाती हू
तुम्हारे आने की आस का
गालियां रोज सुनती हू
ननद- ससुर -सास का ॥

देश के दुश्मन तुम भगाओ
मैं जुझू , घर के आँगन से
मेरी गदराई जवानी
कब तक बचेगी , रावण से ॥

पायल की झंकार अब सुनी
गीत नहीं निकलता कंगन से
बुला रही है मुझे गोपियां
अब मथुरा -वृन्दावन से ॥

जोगन बन मैं भाग चलुगी
तुम देश -देश को खोजना
विरह -मिलन की यादों में ही
अपना शेष जीवन काटना ॥

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