मित्रो , यह कविता लिखने की प्रेरणा भाई ओंकार जी ने दी है ...
कल मैंने ...
ग्राहम वेल की फोटो पर
मारी थी एक लात ॥
मुझे नहीं पता था
डाल देगा खटास
यह निकम्मी टेलीफोन भी ॥
बात ज्यादा नहीं थी
नाक में दम कर रखी थी पड़ोसियों ने
श्रीमती जी की ॥
गाहे -बगाहे
समय -कुसमय
जब भी टेलीफोन की घंटी बजती
मुझे लगता
एक और पडोसी से
होने जा रहा है ३६ का सम्बन्ध ॥
फलां को बुला दीजिये
न बुलाओ ...
ले लो दुश्मनी मोल ॥
रात को सोना हराम
रविबार तो बेकार ही समझे ॥
हद तो तब हो गयी
जब पडोसी ने
पुलिस वाले को नुम्बर दे दिया
अब , पिलिक वाले पूछते
सब शान्ति है न महल्ले में
मानो ..मेरा घर , घर नहीं
शान्ति समिति का कार्यालय हो
मैं चरण स्पर्श करता हू
मोबाइल के निर्माताओ का
जिनकी कृपा से
अब पड़ोसिओ से बातें क्या
उनकी सूरत भी नहीं दिखती॥
जय मोबाइल ॥
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