पूजा क्या है--- मैंने इस पर अपनी समझा के मुताबिक़ बहुत माथा-पच्ची की , अंत में यही निष्कर्ष निकला कि यह दिनचर्या शुरू करने का एक अच्छा माध्यम है साथ-ही साथ अपने आराध्य देव को खुश करने का और आत्म संतुष्टि पाने का सर्वोत्तम विधान है
हो सकता है .. आप मेरे विचारों से सहमत न हों पूजा करना, कपडे को आयरन (ईस्त्रि) क्र पहनने जैसा है इसमें कोई गारंटी नहीं कि कपडे में मौजूद विषाणु मर ही गए हों
जबकि प्रवचन में हम किसी संत, महापुरुष, वैज्ञनिक या किसी अन्य सामज सुधारक के बारे समाज और इंसानियत के प्रति किये गए उनके कृत्यों को सुनते है . सुनने के दौरान दिल के अंदर टिस उठती है कि शायद हम भी वैसा कुछ कर पाते, जिससे मेरे जीवन के चर्चे नश्वर शारीर छोड़ने के बाद भी इस लौकिक संसार में बने रहते //
लगातर प्रवचन सुनने से मानव मन के अंदर का रावण धीरे-धीरे मरने लगता है ,और राम हावी होने लगता है . ऐसा होने से हम भी उनके द्वारा किये गए कार्यों या समाज के प्रति अपनी जिम्मेवारी को निभाने कि कोसिस करते है.सीधे रूप में यह कहा जा सकता है कि लगातर प्रवचन के श्रवण से मानव का आचरण सवर सकता है जबकि पूजा करने से सिर्फ आत्म-शुद्दि का भाव ही जागृत होता है
समाज में बुराइयों का अंत नहीं है पहले लोगों को लगता था कि सती प्रथा ही समाज कि सबसे बड़ी बुराई है जैसे ही यह कुप्रथा दूर हुई दूसरी अनेकानेक बुराइयों ने समाज में अपना घर बना लिय! इटरनेट और टी. वी आने के बाद अपनी भारतीय संस्कृति पर ज़बदस्त हल्ला और कुठाराघात हुआ . कानून बना देने समस्या का समाधान नहीं है किसी बड़े वकील का घर देखिये धोखाधड़ी , हत्या और अन्य अपराध कि रोक-थाम के लिए बने कानून कि किताबों से भरा होता है .. फिर भी किसी अपाराध में कमी आई है ?
अच्छा तो यही होगा कि बुराइयों का अंत उसका जड़ काटकर करें... बाल्यावस्था से अगर इस और प्रवृत होने कि कोसिस क़ी जाए , तो हम प्रवचन सुनकर और सुनाकर एक स्वस्थ समाज बनाने क़ी और अग्रसर हो सकेगें