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शुक्रवार, 30 सितंबर 2011
मखमली आलिंगन
मिश्री सी घुल जाती कानों में
जब बजते हैं तेरे कंगन
फिसल जाता है मेरा यौवन
जब हो तेरा मखमली आलिंगन //
सांसों की गर्माहट से पिघले हम-तुम
एक दूजे में हम लिपटे हैं गुम-सुम
देख अदा तेरी,कामदेव भी खूब तड़पता
जब लेती तुम, मेरे अधरों पर चुम्बन //
उड़े दुपटा या फिर फिसले उर से आँचल
शर्म नहीं,जब कह दे कोई प्रेमी पागल
कभी हाथ फिसलते तेरे कटी पर
स्पर्श तेर उरों का, कर देता तन में कम्पन //
कभी सहलाता तेरे कानो की बाली
कभी तेरी गेसुओं की मेखला प्यारी
जल जाता ऊर्जा का दीपक रोम-रोम में
पाकर तेर प्यार की गठरी का अवलंबन //
बुधवार, 28 सितंबर 2011
इश्क का पता
इश्क को पता जानने
मैं एक दिन घर से निकला
बीयर -बार में पहुंचा
जाम टकराते हुए मस्त जोड़े थे
मैं दावा तो नहीं कर सकता
वे कुबारे थे या शादीशुदा
शायद यहाँ इश्क मौजूद था //
शाम में झाडियों में देखा
इश्क ...
एक दूसरे के गोद में बैठा था
मनो लोहे और चुम्बक का मिलन हो //
इश्क को मैंने
खंडहरों में / कालेजों में
नाचते -गाते और गुनगुनाते देखा //
अंत में ...
एक शादी-शुदा के घर में
इश्क को खोजने पहुंचा
घर के दरवाजे पर ही
एक बुढ़िया मिल गयी
माँ थी
उनकी आँखों में लिखा था
बेटा ! गलत जगह आ गए
ये इश्क का घर नहीं
यह अविश्वास का घर है
मैं वापस लौट गया
क्योकि माँ कभी झूट नहीं बोलती //
मैं समझ गया दोस्त
इश्क नहीं बंधना चाहता
अग्नि के फेरों में
निकाह के काबुल नाम में
और चर्च की प्रार्थना में //
मंगलवार, 20 सितंबर 2011
तेरे अधरों की फुलवारी
तेरी देहयिस्टी है छड़ चुम्बक
तुमसे बचूंगा, मैं अब कब तक
नज़र नयन का पकडे रहना
आलिंगन में ज़कड़े रहना
बाते करना प्यारी-प्यारी
भवरा बन मैं पीते रहूंगा
तेरे अधरों की फुलबारी //
नशा यौवन का मुझमे भी है
चाहत की आंधी तुममे भी है
उर की चुम्बन की रंगरेली करना
मेरी जुल्फों से अटखेली करना
सहलाना मेरे कानो की मोती
बुझा देना कमरे की ज्योति
रति क्रीडा की करना तैयारी //
भवरा बन मैं पीते रहूंगा
तेरे अधरों की फुलबारी
शनिवार, 10 सितंबर 2011
बीते पल के आँगन में
(बीते दिनों की याद प्रतेक के जेहन में किसी न किसी रूप में छिपी रहती हैं । जिस प्रकार फूल की पंखुड़ियां सूख जाती हैं, मगर खुशबू नहीं सूखती उसी प्रकार यादें भी ....)
बीते पल के आँगन में
है रौशनी ज़र्रा-ज़र्रा
कोमल पंखुड़ियां हैं सूखी
फिर भी खुशबू कलश भरा //
मन बचपन हो जाता क्षण में
ऊर्जा सी जग जाती तन में
प्रवाह विद्युत् का रोक न पाता
कैसे भूलूं प्यार तुम्हारा गहरा //
कोमल पंखुड़ियां हैं सूखी
फिर भी खुशबू कलश भरा //
तेरे अधरों का कमल चुराने
तुम्हें यौवन का स्वाद चखाने
पहुंचा मैं रिमझिम सावन में
बच-बच के,तोड़ पुलिसिया पहरा //
कोमल पंखुड़ियां हैं सूखी
फिर भी खुशबू कलश भरा //
शुक्रवार, 9 सितंबर 2011
ईश्वर व्यापारी नहीं है ///
आदमी ने बनाया
बहुत सारे निर्जीव यन्त्रं
फिर खोल दी दूकान
उनके कल-पुर्जों की //
ईश्वर ने बनाया
अनेकों जीव
मगर नहीं खोली दूकान
फेफड़ा ,गुर्दा और लीवर बेचने की //
यदि ईश्वर व्यापारी होता
खूब चलती उनकी दूकान
अगर ! वह टूरिस्ट आपरेटर होता
जीते जी स्वर्ग दिखाने का
फंडा हीट कर जाता //
अगर अफ़सोस !
ईश्वर व्यापारी नहीं है //
रविवार, 4 सितंबर 2011
मेरा मन क्यों न बहके
जब खेतों में सरसों महके
जब अमराई में कोयल चहके
जब घुघट से आँचल सरके
बोलो सजनी !
मेरा मन तब क्यों न बहके //
जब छाये पूरब में लाली
जब गाए खरतों में हरियाली
झूमे उर और कमर जब लचके
बोलो सजनी !
मेरा मन तब क्यों न बहके //
जब सुमन-पवन का हो आलिंगन
तब यौवन-ढलान पर फिसले मन
छूकर मुझे, जब तेरा स्वर अटके
बोलो सजनी !
मेरा मन तब क्यों न बहके //
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