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मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

तिरिया चरितर


( तिरिया चरित्र का शाब्दिक अर्थ होता है - स्त्रियों द्वारा पुरुषों को मुर्ख बनाने का खेल )

नाक से लेकर मांग तक
सिंदूर लगाकर
बहुत जँच रही थी
बडकी भौजी
पुराणों में वर्णित
देवी की तरह //

जैसे ही सब आगंतुक
जो आये थे
भाग लेने
सूर्य -उपासना के पर्व में
चले जायेंगें
बाघ-बकरी का खेल
शुरू हो जाएगा
सास-बहू में //

बहू बरसाने लगेगी बातों के डंडे
अपनी सास पर /
और सास राह देखेगी
अपने बेटे के आने का //

बेटा आ गया ...
बहू का सास के प्रति सेवा देख
गदगद हो गया /
माँ के शिकायत को
बेटा को नज़रंदाज़ करना पडा //
बेटा !
चला गया कुछ दिनों बाद
और फिर से शुरू हो गया
खेल तिरिया चरितर का //

शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

दोष किसका है


नावों के डूबने में ,क्या दोष है पतवारों का
चमन को लुटने में , क्या दोष है खारों का //

बढ़ाते हैं , हम और आप इस दुनिया को
महगाई बढ़ने में ,क्या दोष है बाज़ारों का /

बेवज़ह तान तेदे हैं बंदूकें एक दुसरे पर
क़त्ल हो जाए तो,क्या दोष हैं तलवारों का //

तुम शिकायत लेकर कहाँ जाओगे ,बबन !
जब नल ही दूटा हो, क्या दोष है फब्बारों का //

शनिवार, 8 अक्टूबर 2011

नज्म


झुकना नहीं सीखा था ,इसलिए टूट गया हूँ
लूटना नहीं सीखा था, इसलिए लुट गया हूँ //

अविश्वास की डोर से,मैं रिश्ते नहीं बाँध पाया
अपनों ने छोड़ा मुझे,मैं परायों को भी नहीं छोड़ पाया //

सबका खून एक है,मगर क्यों कोई ईमान बेच देता है
अपने चूल्हे की आग बुझा ,दुसरे पर रोटी सेक लेता है //



स्वस्थ बीज अगर बोयेगा किसान ,फल ज़रूर निकल जाएगा
इत्मीनान से बैठकर सोचो बबन ,कोई हल ज़रूर निकल जाएगा //

गुरुवार, 6 अक्टूबर 2011

कील


कारीगर ने
कील का सही उपयोग किया
लकड़ी के टुकड़ों को जोड़ कर
एक टेबल बना दिया //

कील ने भी
नहीं बिगड़ने दी उसका स्वरुप
दर्द सहकर भी //

दूसरी तरफ
एक नासमझ ने
कील को फेक दिया सड़कों पर
इस बार कील ने
स्वम दर्द नहीं सहा
बल्कि ...
कितनो को घायल कर गया //

शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

मखमली आलिंगन


मिश्री सी घुल जाती कानों में
जब बजते हैं तेरे कंगन
फिसल जाता है मेरा यौवन
जब हो तेरा मखमली आलिंगन //

सांसों की गर्माहट से पिघले हम-तुम
एक दूजे में हम लिपटे हैं गुम-सुम
देख अदा तेरी,कामदेव भी खूब तड़पता
जब लेती तुम, मेरे अधरों पर चुम्बन //

उड़े दुपटा या फिर फिसले उर से आँचल
शर्म नहीं,जब कह दे कोई प्रेमी पागल
कभी हाथ फिसलते तेरे कटी पर
स्पर्श तेर उरों का, कर देता तन में कम्पन //

कभी सहलाता तेरे कानो की बाली
कभी तेरी गेसुओं की मेखला प्यारी
जल जाता ऊर्जा का दीपक रोम-रोम में
पाकर तेर प्यार की गठरी का अवलंबन //

बुधवार, 28 सितंबर 2011

इश्क का पता


इश्क को पता जानने
मैं एक दिन घर से निकला
बीयर -बार में पहुंचा
जाम टकराते हुए मस्त जोड़े थे
मैं दावा तो नहीं कर सकता
वे कुबारे थे या शादीशुदा
शायद यहाँ इश्क मौजूद था //

शाम में झाडियों में देखा
इश्क ...
एक दूसरे के गोद में बैठा था
मनो लोहे और चुम्बक का मिलन हो //

इश्क को मैंने
खंडहरों में / कालेजों में
नाचते -गाते और गुनगुनाते देखा //

अंत में ...
एक शादी-शुदा के घर में
इश्क को खोजने पहुंचा
घर के दरवाजे पर ही
एक बुढ़िया मिल गयी
माँ थी
उनकी आँखों में लिखा था
बेटा ! गलत जगह आ गए
ये इश्क का घर नहीं
यह अविश्वास का घर है
मैं वापस लौट गया
क्योकि माँ कभी झूट नहीं बोलती //

मैं समझ गया दोस्त
इश्क नहीं बंधना चाहता
अग्नि के फेरों में
निकाह के काबुल नाम में
और चर्च की प्रार्थना में //

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

तेरे अधरों की फुलवारी


तेरी देहयिस्टी है छड़ चुम्बक
तुमसे बचूंगा, मैं अब कब तक
नज़र नयन का पकडे रहना
आलिंगन में ज़कड़े रहना
बाते करना प्यारी-प्यारी
भवरा बन मैं पीते रहूंगा
तेरे अधरों की फुलबारी //

नशा यौवन का मुझमे भी है
चाहत की आंधी तुममे भी है
उर की चुम्बन की रंगरेली करना
मेरी जुल्फों से अटखेली करना
सहलाना मेरे कानो की मोती
बुझा देना कमरे की ज्योति
रति क्रीडा की करना तैयारी //
भवरा बन मैं पीते रहूंगा
तेरे अधरों की फुलबारी

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