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शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

बादलों के बीच बैठा मैं

हिमालय .....
शायद स्वर्ग का द्वार
कहना गलत न हो ॥

मैं टाइगर हिल की चोटी पर था
बादलों के बीच बैठने की
पहली अनुभूति थी मेरी
मानो ...बचपन लौट आया था
बादलों को पकड़ने की कोशिस
करता रहा मुठियों में
एक अबोध बालक की तरह ॥
बादलों और हवा की अठखेलियाँ
कैसे कहूँ /कैसे लिखू ॥
१०० मीटर नीचे नहीं देख पा रहा था
अपने मित्र को .....
आवाज बेशक आ रही थी उसकी ॥

आज जाना
कुहासे से क्यों होती है
हवाई -दुर्घटनाएं॥

पहाड़ की उच्चतम शिखर से
स्वर्ग सी लग रही थी "पोखरा "॥
सूर्योदय होने को था
हिमाच्छादित शिखरों का
बदल रहा था रंग ...क्षण -क्षण ॥
श्वेत धवल से गुलाबी
गुलाबी से रक्तिम
रक्तिम से सुनहला ...
कैसे बताऊ
बदलते रंगों का अलौकिक संसार ॥

ओ ...नेपाल के दोस्तों !!
बचा कर रखना
प्रकृति के इस अनुपम खजाने को ॥

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