शब्दों  की तरह
चाहता  हू बांधना   मन  को  भी
मगर  मन ...
कौंधती  है  बिजली की तरह
बढती  है  लहरों  की  तरह
मन  बाहर  दौड़ने   लगता  है
ध्यान   के   दौरान
गंदे   विचार  कुलबुलाते रहते  है ॥
बड़े  ही  द्वन्द  में  जीता  है  मन
आत्मा -परमात्मा   के  चक्कर  में
गृहस्थ  -वैराग्य  के  रास्तों  पर
अपने -पराये   की  दहलीज   पर
ठिठक  जाता  है  मन ॥
खोये  प्रेमी /खोया  धन
पाने  के  लिए  तपड़ता  है  मन ॥
सोचा  था ...
बुढ़ापे  के  साथ
तन और मन ठंढा   हो  जाएगा ॥
मगर  मन ....
अब भी लम्बी  छलांगे  लगाता है ॥
क्या   मन  की चंचलता   को  रोकना
संयम   को  पा   लेना   है ?
ईस्वर  के  करीब पहुचना   है ?

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