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बुधवार, 7 जुलाई 2010

मेरी कविता की चाहत

मैं गीत नहीं हू केवल
विरह -मिलन का संगम हू
बहती नदियां हू भावों का
देवों के चरणों का अर्पण हू ॥

बिन नयनों की देख रहे जो
उनकी आँख मैं बन जाउगी
हर पल पीड़ित मूक -वधिर की
मुखर भाषा मैं बन जाउगी ॥

जो निराश पड़े है, उनके मन में
आशा का दीप जला दूंगी
माँ नहीं है , जिन बच्चों की
लोरी भी गा मैं सुना दूंगी ॥

खोल दूंगी , मन के दरवाजे
जो कब से बन्द पड़े है
राह दिखा दूंगी मैं उनको
जो नीच , अधम और गरल है ॥

चमचमाते तलवारों से
मुझे कोई डरा नहीं सकता
जब भाव समझ ले मेरा
तो उन्हें कोई लड़ा नहीं सकता ॥

मैं बन जाऊ , मजदूर की लाठी
और हल -बैलों का जोड़ा
किसानों को खाद -बीज पंहुचा दू
बन महाराणा प्रताप का घोडा ॥

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